नागौर.
जप-तप के साथ तमाम सांसारिक मूल्यों को त्यागकर वे अपने जीवन को श्रेष्ठ बनाने के लिए संकल्पित है। वे 6 फरवरी को जलगांव में साध्वी इंदुबाला से दीक्षा लेंगी। बातचीत में मुमुक्षु हिमांशी ने बताया कि 2011 के चातुर्मास के बाद से ही भीतर और बाहरी संसार की खोज शुरू हो गई। गुरु की कृपा से ही तप और साधना का मार्ग मिलता है।
ऐसे जगा वैराग्यभाव
मुमुक्षु ने बताया कि 2011 में जब संत मानचंद्र मुनि का चातुर्मास हुआ। उस दौरान उन्हें संतों का सान्निध्य प्राप्त हुआ। स्कूल से आते ही संतों की सेवा में जाना उन्हें अच्छा लगने लगा। चातुर्मास के दौरान ही मन में वैराग्य भाव की उत्पत्ति हुई। वैराग्य भाव को पोषित करने के लिए हिमांशी ने 2012 में संत प्रमोदमुनि के सान्निध्य में दस दिवसीय ध्यान शिविर में साधना की।
चुना कठिन मार्ग
हिमांशी शहर के सावां की गली के निकट गणेशचौक निवासी विमलादेवी एवं भंवरलाल कांकरिया की सातवीं संतान है। तीन भाई और तीन बहनों में सबसे छोटी हिमांशी ने 12वीं कक्षा तक पढ़ाई की। बाल्यावस्था में ही हिमांशी ने अट्ठाई, आयम्बिल जैसे तपव्रत किए। जैन धर्म के ग्रंथों में नंदीसूत्र, दशवें कालिक आदि का भी अध्ययन किया। सूरत से नासिक तक जैन संतों के संग पैदल विहार किया।
जो गुरु कहे...
मुमुक्षु हिमांशी ने बताया कि दीक्षा के बाद गुरु आज्ञा ही सर्वोपरि है। गुरु जो कहेंगे वो करना ही उनका धर्म होगा। कर्ता भाव से अहम पुष्ट होता है। इसलिए गुरु की आज्ञा पालन से बड़ा कोई धर्म नहीं।
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