भारतीय ज्ञान-विज्ञान को अंधेरे गर्त में डाल कर
भारतीयों के गले में डिग्रियों के माया-जाल वाली अंग्रेजी-शिक्षण-पद्धति की फांस
लटका कर भारत को सदा-सदा के लिए अंग्रेजों का उपनिवेश बनाए रखने की कुटिल चाल चलने
वाले अंग्रेजी षड्यंत्रकारी- थामस मैकाले और उसकी शिक्षा व्यवस्था को अहमदाबाद के
हेमचंद्राचार्य संस्कृत गुरुकुल में पढने वाले 108 छात्र खुली चुनौती देते हैं।
भारतीय ज्ञान-विज्ञान को अंधेरे गर्त में डाल कर
भारतीयों के गले में डिग्रियों के माया-जाल वाली अंग्रेजी-शिक्षण-पद्धति की फांस
लटका कर भारत को सदा-सदा के लिए अंग्रेजों का उपनिवेश बनाए रखने की कुटिल चाल चलने
वाले अंग्रेजी षड्यंत्रकारी- थामस मैकाले और उसकी शिक्षा व्यवस्था को अहमदाबाद के
हेमचंद्राचार्य संस्कृत गुरुकुल में पढने वाले 108 छात्र खुली चुनौती देते हैं।
हेमचंद्राचार्य संस्कृत गुरुकुल देश के विभिन्न प्रदेशों
से यहां आये इन 108 बच्चों
ने मैकाले शिक्षण पद्धति के स्कूलों से मिले विभिन्न प्रमाण-पत्रों को रद्दी की
टोकरी में फेकते हुए हेमचन्द्राचार्य गुरूकुलम में शिष्यता ग्रहण करना स्वीकार
किया : डिग्रियों से रहित समग्र-सर्वांगीण शिक्षा और संस्कार
हासिल करने के लिए। पिछले 16 जून
2016 को अहमदाबाद में निकली एक भव्य शोभा-यात्रा के साथ
गुरूकुलम परिसर में इन सभी नौनिहालों का ‘विद्यारम्भ
संस्कार’ समारोहपूर्वक सम्पन्न हुआ। ये वो बच्चे हैं, जिनके माता-पिता अत्यन्त सम्पन्न घराने के हैं , किसी भी महंगे से महंगे स्कूल में उन्हें पढा सकने में
सक्षम हैं।
गुरुकुल के विद्यार्थी किन्तु उन स्कूलों में दी जाने
वाली संस्कारहीन पश्चिमोन्मुखी शिक्षा की निरर्थकता एवं उनकी भारतीय
संस्कृति-विरोधी मानसिकता और भारतीय ज्ञान-विज्ञान की उपेक्षा के विरूद्ध उन्होंने
अपने बच्चों को हेमचन्द्राचार्य संस्कृत पाठशाला ‘गुरूकुलम’ के हवाले कर दिया है। जहां कोई डिग्री अथवा सर्टिफिकेट
नहीं दिये जाते, बल्कि सिर्फ शिक्षा
दी जाती है- उत्त्कृष्ट शिक्षा और 72 प्रकार
की भारतीय विद्यायें सिखायी जाती हैं, वह
भी पूर्णतः निःशुल्क।
यहां हर बच्चे का पाठ्यक्रम अलग-अलग है – उसकी प्रकृति, प्रवृति
व रुचि के अनुसार उत्साहवर्द्धक और आत्मोन्नतिकारक, जबकि
भोजन शुद्धातिशुद्ध जैविक तथा आवास बिल्कुल प्राकृतिक और पोशाक एकदम सहज स्वाभाविक
मगर पौराणिक- धोती-कुर्ता-पगडी-अचकन ।
गुरुकुल में नए विद्यार्थियों का स्वागतोत्सव अत्याधुनिक
शहर के बीच निहायत नैसर्गिक व प्राचीन रंग-ढंग से निर्मित और गाय के गोबर से लेपित
एवं गोमूत्र से नियमित प्रक्षालित परिसर में भारतीय ज्ञान-विज्ञान के अध्ययन-मंथन को
संकल्पित-उत्साहित इन बच्चों का हौसला परवान पर है, क्योंकि
वे जो पढ-लिख-सीख रहे हैं, सो
आधुनिक स्कूलों में पढाये जाने वाले ज्ञान-विज्ञान को समेटते हुए उस पर कई तरह से
कई गुणा भारी हैं। यहां बच्चे भौतिकी, रसायन, इतिहास, भूगोल, गणित, भाषा, साहित्य को न्यूटन-आइंस्टिन- पाईथागोरस-हेरोडोटस और
एक्स-वाई-जेड नामक पश्चिमी विज्ञानियों-विद्वानों की संकीर्ण दृष्टि से नहीं
पढते-लिखते-समझते, बल्कि
उनके सतही ज्ञान के गहरे मूल श्रोत- वेद, वेदांग, निरुक्त, सांख्य, ज्योतिष, पंचांङ्ग, न्याय, योग, मीमांसा, छंद, सूत्र, व्याकरण
, वेदांत , उपनिषद, आरण्यक, स्मृति
आदि प्राचीन भारतीय वाङ्ंग्मय में गोता लगाते हुए अग्नि, वायु, अंगिरा, आदित्य, व्यास, जैमिनी, वैशम्पायन, वशिष्ठ, विश्वामित्र, चरक, आर्यभट्ट, वराहमिहिर, पाणिनि, मम्मट आदि ऋषियों-मनीषियों की दिव्य-दृष्टि व मेधा-शक्ति
से तत्-विषयक सम्पूर्ण ज्ञान ही आत्मसात करने में लगे हैं।
कैलकुलेटर की भांति दिमाग और उँगलियों से गणनाएं करते
विद्यार्थी यह किसी छोटे पात्र के जल से आचमन के बजाये गंगा में ही डुबकी लगा लेने
के समान है। मुझे और मेरे जैसे तमाम लोगों को यह देख कर अचरज होता है कि गणितीय
जोड़-घटाव-गुणन-विभाजन के जिन सवालों को हल करने में मैकाले-अंग्रेजी पद्धति वाले
स्कूली छात्रों को कैलकुलेटर का सहारा लेने के बावजूद आधे पौन घण्टे का समय लग
जाता है, उन और उनसे भी अधिक बडे व टेढे सवालों का हल ये बच्चे
किसी बाहरी सहायता के बगैर ही पलक झपकते भर में प्रस्तुत कर देते हैं ; क्योंकि ये वैदिक गणित पढते हैं। वैदिक गणित से इन्होंने
ऐसा ज्ञान हासिल किया है कि महज तीन मिनट में 70 सवालों
को हल कर देने का राष्ट्रीय खिताब हासिल कर चुका है यहां का एक विद्यार्थी। यह
सामान्य मेधा की बात नहीं है कि आप इतिहास की कोई भी दिनांक/तारीख पुकारें, उसे सुनते ही ये बच्चे उस तारीख के दिन का नाम, अर्थात ‘वार’ बता देंते हैं।
आँखों पर पट्टी बांधकर पढ़ता हुआ एक विद्यार्थी किसी
बच्चे की आंखों पर रूई रख कर काली पट्टी बांध दिए जाने के बावजूद वह बच्चा अगर
आपकी जेब में पडे आपके परिचय-पत्र का रंग और उस पर दर्ज आपके नाम पते को अथवा आपके
हाथों थमाये गए किसी भी कागज पर लिखी बातों को जोर-जोर से पढ कर आपको सुना दे , तो इसे आप क्या कहेंगे ? जाहिर
है, कोई जादू अथवा चमत्कार ही कहेंगे आप। किन्तु ऐसा बौद्धिक
जलवा विखेरने वाले इस गुरूकुल के इन विद्यार्थियों का यह जादू वास्तव में प्राचीन
भारत के स्पर्श-विज्ञान का चमत्कार है। भारतीय ज्ञान-विज्ञान के जिन गुह्य-गुप्त
रहस्यों-पृष्ठों को समझ नहीं पाने के कारण अंग्रेजों ने शिक्षण-अध्यापन के
पाठ्यक्रम से खारिज कर दिया अथवा उनकी चोरी कर भारत से उन्हें गायब कर दिया, उन तमाम खजानों को खोज व खोल कर उनसे भारतीय नवनिहालों
को परम ज्ञानी-विज्ञानी बनाने में लगे इस गुरूकुलम की गतिविधियां अत्यंत सृजनकारी
हैं।
गुरुकुल के विद्यार्थियों को कमांडो जैसी ट्रेनिग दी
जाती है न केवल ज्ञान-विज्ञान, बल्कि
खेल-कूद, रहन-सहन, भाषा-साहित्य, नृत्य-संगीत सब में भारतीय मौलिकता के अन्वेषण-उन्नयन
तथा विद्यार्थियों के द्वारा इनके प्रदर्शन और मैकाले शिक्षण पद्धति के
छिद्रान्वेषण का एक राष्ट्रीय अभियान ही चल रहा है इस गुरूकुल में । पश्चिमोन्मुख
सरकार के संरक्षण में विकसित हुए क्रिकेट के दुष्प्रभाव से लुप्त-प्राय हो चले
विभिन्न भारतीय खेलों के पुनर्प्रचलन-संवर्द्धन का भी काम हो रहा है यहां। क्रिकेट
को छोड सभी तरह के वैसे देसी खेल खेलते हैं यहां के बच्चे, जिन्हें विलुप्ति के गर्त में डाल दिया गया था।
मल्लखंभ विद्या का प्रदर्शन करते छात्र कुश्ती-व्यायाम
के इनके विभिन्न करतबों को देख आप दांतों तले उंगली दबा सकते हैं, तो इनके संगीत गायन-वादन से निकली स्वर-लहरियों से आप
अपना सुध-बुध खो सकते हैं । ढोलक-झाल-हारमोनियम-तबला-सितार-शहनाई और
शंख-मुरली-बांसुरी के स्वर तो आप सुने होंगे, किन्तु
सारंगी-मृदंग-मंजिरा-संतुर-वीणा-वेणु और जलतरंग से निकले मर्मस्पर्शी संगीत-स्वर
आम तौर पर कहीं सुनाई नहीं देता।
गुरुकुल के बच्चों की संगीत विद्या के आगे अच्छे अच्छे
पानी भरते हैं लेकिन यह देख कर आपको सुखद आश्चर्य होगा कि यहां के बच्चे उपरोक्त
सभी वादनों सहित संगीत की चौबीस कलाओं में निपुण हैं। इतना ही नहीं, घोडे की लगाम हाथ में लेकर उसकी पीठ पर सवार हो कुलांचे
भरते बच्चों अथवा सहपाठियों को बैलगाडी पर बैठा कर उसे सरपट हांकते बच्चों की
काबिलियत को देख आपको विश्वास नहीं होगा कि ये वही बच्चे हैं, जिनके घरों में कई-कई मोटर-वाहन पडे हुए होते हैं।
पानी से भरी इन कटोरियों का वाद्ययंत्र की तरह प्रयोग
तमाम प्रकार के साधनों से सम्पन्न होने के बावजूद यहां बच्चे गोबर-माटी से लेपित
भूमि पर बैठ कर ही पढते हैं। दरअसल यह भी एक विज्ञान है, भारतीय विज्ञान ; जिसका
मर्म पश्चिम नहीं समझ सका आज तक। यही कारण है कि शिक्षा की पश्चिमी मैकाले पद्धति
बच्चों को जमीन से काटती है, किन्तु
भारतीय गुरूकुल पद्धति जमीन से जोडती है। इस तथ्य को जान लेने के कारण इन बच्चों
में जमीन पर बैठने के प्रति हीनता का नहीं, बल्कि
अपनी संस्कृति की वैज्ञानिकता से साक्षात्कार का भाव परिलक्षित होता है। यहां
बच्चे जो सिखते हैं अथवा जो करते हैं, उसके
औचित्य को वे बखूबी समझते हैं और अपनी समझ को बाकायदे अभिव्यक्त भी करते हैं।
घुड़सवारी करते गुरुकुल के विद्यार्थी इस गुरूकुल से इन
बच्चों को डिग्रियां न मिलने का कोई मलाल नहीं है तो, इनके माता-पिता को भी डिग्रियों की निरर्थकता का ज्ञान
है। इस गुरूकुल के संचालक, इसके
विद्यार्थी और अभिभावक तीनों मिल कर प्राचीन भारतीय शिक्षण पद्धति की आवश्यकता, प्रासांगिकता, श्रेष्ठता
और प्रामाणिकता सिद्ध करने का अभियान चला रहे हैं। उनके इस अभियान के नायक हैं
यहां के बच्चे जो भाषण कला में भी पारंगत हैं। इन्हें नियमित भाषण सिखाया जाता है-
भारत के प्राचीन ज्ञान-विज्ञान के गौरवपूर्ण प्रदर्शन के लिए तथा अंग्रेजी शासन व
शिक्षण से देश को हुए नुकसान के बाबत जन-जागरण के लिए एवं देश की तथाकथित आजादी के
भ्रमजाल से कायम संभ्रम के निवारण के लिए और मैकाले शिक्षण पद्धति की संव्याप्ति
के कारण प्रदूषित हो गए जन-गण-मन के बौद्धिक परिष्करण के लिए।
गुरुकुल के बच्चे संस्कृत में धारा प्रवाह ओजस्वी भाषण
करते हैं इनके चुनौतीपूर्ण भाषणों की ललकार सुनने से आपको ऐसा प्रतीत होगा कि देश
के हर शहर में अगर ऐसे एक सौ आठ-आठ बच्चे खडे हो जाएं, तो रातो-रात क्रांति घटित हो जाएगी, और मैकाले-अंग्रेजी शिक्षण-पद्धति की शुरू हो जाएगी
उल्टी गिनती ।
Read more at: http://hindi.revoltpress.com/featured/hemchandracharya-gujrat-gurukuls-108-student-challenging-modern-education-system/
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