Thursday, July 28, 2016

भाई के अच्छे दिन!

जयपुर।
अच्छे दिन? आ गए! अच्छे दिन? आ गए! किसके आए? तेरे आए? मेरे आए? इसके आए? उसके आए? गरीब के आए? गुरबों के आए? तो किसके आए? फिलहाल तो अच्छे दिन सिर्फ भाई के आए हैं।


वाह रे भाई! वाह रे तेरी हातिमताई! तूने उपद्रव मचाया। तुमने प्रेमिका को पीटा! तूने प्रेमिका के प्रेमी की खाट खड़ी की। तूने क्या-क्या बोल नहीं बोले। लेकिन वाह रे तेरी किस्मत। वाह! तूने सिद्ध कर दिया कि बड़ी-बड़ी लक्जरी गाडिय़ां दारू पीकर अपने आप चलती हैं।
तूने बता दिया कि इस देश से गरीबी को कम करने का एक मात्र उपाय है कि गरीबों को ही कम कर दिया जाए। तेरे ऊपर फिदा होकर हिरण खुद मर गया। चिंकारा ने आत्महत्या कर ली। तेरे प्रेम में फंस कर गवाह गायब हो गए। ये तेरी महत्ता के कारण तेरे पैरवीकार टीवी के सामने आकर बेशर्मी से तेरा बखान कर रहे हैं। तूने सिद्ध कर दिया कि इस देश के कानून में सत्तर छेद है और कानूनी चालनी से महीन-महीन अमीर लोग बाहर निकल जाते हैं और मोटे-मोटे कंकड़ पत्थर यानी गरीब फंदे में ही फंसे रह जाते हैं।
भाई तू दोस्तों का बॉडीगार्ड है, तू कानूनी अखाड़े का सुल्तान है। तूने इस देश को जो राह दिखाई है वह रंग लाएगी! अब भाई के इस प्रशस्तिगान को सुन कर आप यह न कहना कि हमारी मूर्ख कलम भाई का गुणगान क्यों कर रही है? जरा धैर्य से सुने। जिस देश की व्यवस्था बिकाऊ और हाकिम चोर हो जाते हैं। जिस समाज में अमीर के सात खून माफ और गरीब को 'चोर' माना जाता है, क्रांति उसी समाज में होती है।

अब तय हो रहा है कि यहां सब कुछ बिकने लगा है। चचा का शेर है- दर्द का हद से गुजर जाना दवा हो जाना। जब आमजन का व्यवस्था, न्याय और हुकूमत से विश्वास हट जाता है तो क्रांति का ज्वालामुखी फूटता है तब अवाम गाती है- हम देखेंगे, मुमकिन है कि हम भी देखेंगे। जब ताज उछाले जाएंगे, जब तख्त गिराये जाएंगे, हम देखेंगे...।
व्यंग्य राही की कलम से
http://rajasthanpatrika.patrika.com/story/opinion/baat-karamat-2292728.html

Wednesday, July 27, 2016

गुजरात : सनसनीखेज तरीके से जेल से भागे हत्या के आरोपी का नाटकीय आत्मसमर्पण

अहमदाबाद: साबरमती जेल गुजरात की सबसे सुरक्षित जेल मानी जाती है। इस जेल की कथित कड़ी सुरक्षा व्यवस्था को धता बताकर एक युवा आरोपी फरार हो गया। हालांकि हत्या के इस आरोपी ने अपनी मां के कहने पर आत्मसमर्पण भी कर दिया। इस घटना से साबरमती जेल की सुरक्षा व्यवस्था के दावों की पोल खुल गई है और कई सवाल उठ खड़े हुए हैं।    


बीस फीट ऊंची दीवार पर तारों में करंट
साबरमती जेल में आतंकवाद और बम ब्लास्ट से लेकर बड़े-बड़े गुनाहों के आरोपी और सजा याफ्ता कैदी रहते हैं। इसी लिहाज से इसकी सुरक्षा बहुत ही अहम है। सुरक्षा के मद्देनजर यहां करीब 500 सीसीटीवी कैमरे लगाए गए हैं। चारों ओर बहुत सारे वॉच टावर हैं। जेल के आसपास करीब 20 फीट की सुरक्षा दीवार है और उस दीवार पर लगे तारों में लगातार बिजली दौड़ती है। इसके अलावा बड़ी संख्या में पुलिस कर्मी तैनात रहते हैं। ऐसे में अगर कोई जेल की दीवार फांदकर भाग जाए तो यह असंभव ही लगता है।

दीवार लांघकर फरार हो गया प्रवीण
पिछले रविवार को इस पूरी सुरक्षा की धज्जियां उड़ा दीं एक 20 साल के हत्या के आरोपी प्रवीण उर्फ भोलो ने। वह रविवार को दोपहर में सबकी नजर से बचकर जेल की 20 फीट की दीवार फांद गया। पूरी जेल में किसी को इसका पता नहीं चला। शाम को जब सभी कैदियों को अपने-अपने बैरेकों में भेजा जाता है तब उनकी गिनती की जाती है। गिनती में पता चला कि इस बैरेक में 135 कैदियों में से एक कम है। बार-बार गिनती की गई तो पता चला कि प्रवीण गायब है। इस पर सभी चौंक उठे।

तारों में नहीं था करंट
सीसीटीवी वगैरह की जांच की गई। पुलिस भी हैरान रह गई कि 20 फीट की दीवार फांदकर कोई स्पाइडरमैन जैसे कैसे भाग गया। मामले की गंभीरता को देखते हुए इसकी जांच अहमदाबाद क्राइम ब्रांच को सौंप दी गई। जांच करने पर पता चला कि उस वक्त बिजली के तार में बिजली नहीं दौड़ रही थी। सुरक्षा में भारी चूक स्पष्ट हो गई। लेकिन बड़ी चुनौती थी इस आरोपी को पकड़ना। इसके लिए पुलिस ने उसके घर और अन्य कई जगह छापे मारे। कई टीमें जांच में जुटीं, लेकिन नतीजा शून्य।

मां के आंसुओं ने कर दिया मजबूर
इस बीच मंगलवार को दोपहर को प्रवीण ने अपनी मां को फोन किया कि मैं भाग गया हूं। मां ने कहा कि ऐसा करना ठीक नहीं होगा। पुलिस परिवार को परेशान कर सकती है, मां की खातिर आत्मसमर्पण कर दे। बस फिर क्या था हजारों पुलिस कर्मियों को छकाकर भागने वाला हत्या का आरोपी मां के आंसुओं के सामने समर्पण के लिए तैयार हो गया।

देर रात बेटे को लेकर पहुंची मां
मां ने पुलिस को फोन करके कहा कि आप मोहल्ले में मेरे बेटे को पकड़ने मत आइएगा, मैं खुद बेटे को लेकर क्राइम ब्रांच पहुंच जाऊंगी। और सच में देर रात मां अपने वादे के मुताबिक बेटे को लेकर क्राइम ब्रांच के आफिस में पहुंच गई और उसका आत्मसमर्पण करवा दिया। जिस सनसनीखेज तरीके से प्रवीण भागा था, उतने ही नाटकीय ढंग से उसका आत्मसमर्पण भी हो गया। लेकिन इस घटना ने गुजरात की सबसे सुरक्षित जेल की सुरक्षा व्यवस्था की धज्जियां उड़ाकर रख दी हैं।

http://khabar.ndtv.com/news/india/gujarat-sensational-escape-and-surrender-1436994?pfrom=home-moretop 

अंग्रेजी-मैकाले शिक्षण-पद्धति को खुली चुनौती देते हैं इस ‘जैन गुरुकुल के बच्चे’

भारतीय ज्ञान-विज्ञान को अंधेरे गर्त में डाल कर भारतीयों के गले में डिग्रियों के माया-जाल वाली अंग्रेजी-शिक्षण-पद्धति की फांस लटका कर भारत को सदा-सदा के लिए अंग्रेजों का उपनिवेश बनाए रखने की कुटिल चाल चलने वाले अंग्रेजी षड्यंत्रकारी- थामस मैकाले और उसकी शिक्षा व्यवस्था को अहमदाबाद के हेमचंद्राचार्य संस्कृत गुरुकुल में पढने वाले 108 छात्र खुली चुनौती देते हैं।



भारतीय ज्ञान-विज्ञान को अंधेरे गर्त में डाल कर भारतीयों के गले में डिग्रियों के माया-जाल वाली अंग्रेजी-शिक्षण-पद्धति की फांस लटका कर भारत को सदा-सदा के लिए अंग्रेजों का उपनिवेश बनाए रखने की कुटिल चाल चलने वाले अंग्रेजी षड्यंत्रकारी- थामस मैकाले और उसकी शिक्षा व्यवस्था को अहमदाबाद के हेमचंद्राचार्य संस्कृत गुरुकुल में पढने वाले 108 छात्र खुली चुनौती देते हैं।


हेमचंद्राचार्य संस्कृत गुरुकुल देश के विभिन्न प्रदेशों से यहां आये इन 108 बच्चों ने मैकाले शिक्षण पद्धति के स्कूलों से मिले विभिन्न प्रमाण-पत्रों को रद्दी की टोकरी में फेकते हुए हेमचन्द्राचार्य गुरूकुलम में शिष्यता ग्रहण करना स्वीकार किया : डिग्रियों से रहित समग्र-सर्वांगीण शिक्षा और संस्कार हासिल करने के लिए। पिछले 16 जून 2016 को अहमदाबाद में निकली एक भव्य शोभा-यात्रा के साथ गुरूकुलम परिसर में इन सभी नौनिहालों का विद्यारम्भ संस्कारसमारोहपूर्वक सम्पन्न हुआ। ये वो बच्चे हैं, जिनके माता-पिता अत्यन्त सम्पन्न घराने के हैं , किसी भी महंगे से महंगे स्कूल में उन्हें पढा सकने में सक्षम हैं।


गुरुकुल के विद्यार्थी किन्तु उन स्कूलों में दी जाने वाली संस्कारहीन पश्चिमोन्मुखी शिक्षा की निरर्थकता एवं उनकी भारतीय संस्कृति-विरोधी मानसिकता और भारतीय ज्ञान-विज्ञान की उपेक्षा के विरूद्ध उन्होंने अपने बच्चों को हेमचन्द्राचार्य संस्कृत पाठशाला गुरूकुलमके हवाले कर दिया है। जहां कोई डिग्री अथवा सर्टिफिकेट नहीं दिये जाते, बल्कि सिर्फ शिक्षा दी जाती है- उत्त्कृष्ट शिक्षा और 72 प्रकार की भारतीय विद्यायें सिखायी जाती हैं, वह भी पूर्णतः निःशुल्क।


यहां हर बच्चे का पाठ्यक्रम अलग-अलग है उसकी प्रकृति, प्रवृति व रुचि के अनुसार उत्साहवर्द्धक और आत्मोन्नतिकारक, जबकि भोजन शुद्धातिशुद्ध जैविक तथा आवास बिल्कुल प्राकृतिक और पोशाक एकदम सहज स्वाभाविक मगर पौराणिक- धोती-कुर्ता-पगडी-अचकन ।


गुरुकुल में नए विद्यार्थियों का स्वागतोत्सव अत्याधुनिक शहर के बीच निहायत नैसर्गिक व प्राचीन रंग-ढंग से निर्मित और गाय के गोबर से लेपित एवं गोमूत्र से नियमित प्रक्षालित परिसर में भारतीय ज्ञान-विज्ञान के अध्ययन-मंथन को संकल्पित-उत्साहित इन बच्चों का हौसला परवान पर है, क्योंकि वे जो पढ-लिख-सीख रहे हैं, सो आधुनिक स्कूलों में पढाये जाने वाले ज्ञान-विज्ञान को समेटते हुए उस पर कई तरह से कई गुणा भारी हैं। यहां बच्चे भौतिकी, रसायन, इतिहास, भूगोल, गणित, भाषा, साहित्य को न्यूटन-आइंस्टिन- पाईथागोरस-हेरोडोटस और एक्स-वाई-जेड नामक पश्चिमी विज्ञानियों-विद्वानों की संकीर्ण दृष्टि से नहीं पढते-लिखते-समझते, बल्कि उनके सतही ज्ञान के गहरे मूल श्रोत- वेद, वेदांग, निरुक्त, सांख्य, ज्योतिष, पंचांङ्ग, न्याय, योग, मीमांसा, छंद, सूत्र, व्याकरण , वेदांत , उपनिषद, आरण्यक, स्मृति आदि प्राचीन भारतीय वाङ्ंग्मय में गोता लगाते हुए अग्नि, वायु, अंगिरा, आदित्य, व्यास, जैमिनी, वैशम्पायन, वशिष्ठ, विश्वामित्र, चरक, आर्यभट्ट, वराहमिहिर, पाणिनि, मम्मट आदि ऋषियों-मनीषियों की दिव्य-दृष्टि व मेधा-शक्ति से तत्-विषयक सम्पूर्ण ज्ञान ही आत्मसात करने में लगे हैं।


कैलकुलेटर की भांति दिमाग और उँगलियों से गणनाएं करते विद्यार्थी यह किसी छोटे पात्र के जल से आचमन के बजाये गंगा में ही डुबकी लगा लेने के समान है। मुझे और मेरे जैसे तमाम लोगों को यह देख कर अचरज होता है कि गणितीय जोड़-घटाव-गुणन-विभाजन के जिन सवालों को हल करने में मैकाले-अंग्रेजी पद्धति वाले स्कूली छात्रों को कैलकुलेटर का सहारा लेने के बावजूद आधे पौन घण्टे का समय लग जाता है, उन और उनसे भी अधिक बडे व टेढे सवालों का हल ये बच्चे किसी बाहरी सहायता के बगैर ही पलक झपकते भर में प्रस्तुत कर देते हैं ; क्योंकि ये वैदिक गणित पढते हैं। वैदिक गणित से इन्होंने ऐसा ज्ञान हासिल किया है कि महज तीन मिनट में 70 सवालों को हल कर देने का राष्ट्रीय खिताब हासिल कर चुका है यहां का एक विद्यार्थी। यह सामान्य मेधा की बात नहीं है कि आप इतिहास की कोई भी दिनांक/तारीख पुकारें, उसे सुनते ही ये बच्चे उस तारीख के दिन का नाम, अर्थात वारबता देंते हैं।


आँखों पर पट्टी बांधकर पढ़ता हुआ एक विद्यार्थी किसी बच्चे की आंखों पर रूई रख कर काली पट्टी बांध दिए जाने के बावजूद वह बच्चा अगर आपकी जेब में पडे आपके परिचय-पत्र का रंग और उस पर दर्ज आपके नाम पते को अथवा आपके हाथों थमाये गए किसी भी कागज पर लिखी बातों को जोर-जोर से पढ कर आपको सुना दे , तो इसे आप क्या कहेंगे ? जाहिर है, कोई जादू अथवा चमत्कार ही कहेंगे आप। किन्तु ऐसा बौद्धिक जलवा विखेरने वाले इस गुरूकुल के इन विद्यार्थियों का यह जादू वास्तव में प्राचीन भारत के स्पर्श-विज्ञान का चमत्कार है। भारतीय ज्ञान-विज्ञान के जिन गुह्य-गुप्त रहस्यों-पृष्ठों को समझ नहीं पाने के कारण अंग्रेजों ने शिक्षण-अध्यापन के पाठ्यक्रम से खारिज कर दिया अथवा उनकी चोरी कर भारत से उन्हें गायब कर दिया, उन तमाम खजानों को खोज व खोल कर उनसे भारतीय नवनिहालों को परम ज्ञानी-विज्ञानी बनाने में लगे इस गुरूकुलम की गतिविधियां अत्यंत सृजनकारी हैं।


गुरुकुल के विद्यार्थियों को कमांडो जैसी ट्रेनिग दी जाती है न केवल ज्ञान-विज्ञान, बल्कि खेल-कूद, रहन-सहन, भाषा-साहित्य, नृत्य-संगीत सब में भारतीय मौलिकता के अन्वेषण-उन्नयन तथा विद्यार्थियों के द्वारा इनके प्रदर्शन और मैकाले शिक्षण पद्धति के छिद्रान्वेषण का एक राष्ट्रीय अभियान ही चल रहा है इस गुरूकुल में । पश्चिमोन्मुख सरकार के संरक्षण में विकसित हुए क्रिकेट के दुष्प्रभाव से लुप्त-प्राय हो चले विभिन्न भारतीय खेलों के पुनर्प्रचलन-संवर्द्धन का भी काम हो रहा है यहां। क्रिकेट को छोड सभी तरह के वैसे देसी खेल खेलते हैं यहां के बच्चे, जिन्हें विलुप्ति के गर्त में डाल दिया गया था।


मल्लखंभ विद्या का प्रदर्शन करते छात्र कुश्ती-व्यायाम के इनके विभिन्न करतबों को देख आप दांतों तले उंगली दबा सकते हैं, तो इनके संगीत गायन-वादन से निकली स्वर-लहरियों से आप अपना सुध-बुध खो सकते हैं । ढोलक-झाल-हारमोनियम-तबला-सितार-शहनाई और शंख-मुरली-बांसुरी के स्वर तो आप सुने होंगे, किन्तु सारंगी-मृदंग-मंजिरा-संतुर-वीणा-वेणु और जलतरंग से निकले मर्मस्पर्शी संगीत-स्वर आम तौर पर कहीं सुनाई नहीं देता।


गुरुकुल के बच्चों की संगीत विद्या के आगे अच्छे अच्छे पानी भरते हैं लेकिन यह देख कर आपको सुखद आश्चर्य होगा कि यहां के बच्चे उपरोक्त सभी वादनों सहित संगीत की चौबीस कलाओं में निपुण हैं। इतना ही नहीं, घोडे की लगाम हाथ में लेकर उसकी पीठ पर सवार हो कुलांचे भरते बच्चों अथवा सहपाठियों को बैलगाडी पर बैठा कर उसे सरपट हांकते बच्चों की काबिलियत को देख आपको विश्वास नहीं होगा कि ये वही बच्चे हैं, जिनके घरों में कई-कई मोटर-वाहन पडे हुए होते हैं।

पानी से भरी इन कटोरियों का वाद्ययंत्र की तरह प्रयोग तमाम प्रकार के साधनों से सम्पन्न होने के बावजूद यहां बच्चे गोबर-माटी से लेपित भूमि पर बैठ कर ही पढते हैं। दरअसल यह भी एक विज्ञान है, भारतीय विज्ञान ; जिसका मर्म पश्चिम नहीं समझ सका आज तक। यही कारण है कि शिक्षा की पश्चिमी मैकाले पद्धति बच्चों को जमीन से काटती है, किन्तु भारतीय गुरूकुल पद्धति जमीन से जोडती है। इस तथ्य को जान लेने के कारण इन बच्चों में जमीन पर बैठने के प्रति हीनता का नहीं, बल्कि अपनी संस्कृति की वैज्ञानिकता से साक्षात्कार का भाव परिलक्षित होता है। यहां बच्चे जो सिखते हैं अथवा जो करते हैं, उसके औचित्य को वे बखूबी समझते हैं और अपनी समझ को बाकायदे अभिव्यक्त भी करते हैं।


घुड़सवारी करते गुरुकुल के विद्यार्थी इस गुरूकुल से इन बच्चों को डिग्रियां न मिलने का कोई मलाल नहीं है तो, इनके माता-पिता को भी डिग्रियों की निरर्थकता का ज्ञान है। इस गुरूकुल के संचालक, इसके विद्यार्थी और अभिभावक तीनों मिल कर प्राचीन भारतीय शिक्षण पद्धति की आवश्यकता, प्रासांगिकता, श्रेष्ठता और प्रामाणिकता सिद्ध करने का अभियान चला रहे हैं। उनके इस अभियान के नायक हैं यहां के बच्चे जो भाषण कला में भी पारंगत हैं। इन्हें नियमित भाषण सिखाया जाता है- भारत के प्राचीन ज्ञान-विज्ञान के गौरवपूर्ण प्रदर्शन के लिए तथा अंग्रेजी शासन व शिक्षण से देश को हुए नुकसान के बाबत जन-जागरण के लिए एवं देश की तथाकथित आजादी के भ्रमजाल से कायम संभ्रम के निवारण के लिए और मैकाले शिक्षण पद्धति की संव्याप्ति के कारण प्रदूषित हो गए जन-गण-मन के बौद्धिक परिष्करण के लिए।



गुरुकुल के बच्चे संस्कृत में धारा प्रवाह ओजस्वी भाषण करते हैं इनके चुनौतीपूर्ण भाषणों की ललकार सुनने से आपको ऐसा प्रतीत होगा कि देश के हर शहर में अगर ऐसे एक सौ आठ-आठ बच्चे खडे हो जाएं, तो रातो-रात क्रांति घटित हो जाएगी, और मैकाले-अंग्रेजी शिक्षण-पद्धति की शुरू हो जाएगी उल्टी गिनती ।

Read more at: http://hindi.revoltpress.com/featured/hemchandracharya-gujrat-gurukuls-108-student-challenging-modern-education-system/

गुजरात का ये गुरुकुल टक्कर देता है अमेरिका की हॉवर्ड से लेकर भारत की आईआईटी तक को


अमेरिका की हॉवर्ड विश्वविद्यालय से लेकर भारत की आईआईटी में क्या कोई ऐसी शिक्षा दी जाती है कि छात्र की आंख पर पट्टी बांध दी जाये और उसे प्रकाश की किरणें भी दिखाई ना दे, फिर भी वो सामने रखी हर वस्तु को पढ़ सकता हो? है ना चौकाने वाली बात? मगर यह चमत्कार भारत में किसी और जगह नहीं बल्कि प्रधानमंत्री के गृहराज्य गुजरात के महानगर में आज साक्षात् हो रहा है।


/
पिछले दिनों सभी टी वी चैनलों ने एक प्रतिभाशाली बच्चा दिखाया था, जिसे गूगल चाइल्डकहा गया। यह बच्चा सेकेंड में उत्तर देता था जबकि उसकी आयु 10 वर्ष से भी कम थी। दुनिया हैरान थी ऐसे ज्ञान को देखकर। पर किसी टी वी चैनल ने ये नहीं बताया कि ऐसी योग्यता उसमे इसी गुरुकुल से आई है। दूसरा उदाहरण उस बच्चे का है जिसे दुनिया के इतिहास की कोई भी तारीख पूछो, तो वह सवाल खत्म होने से पहले उस तारीख को क्या दिन था, ये भी बता देता है। इतनी जल्दी तो कोई आधुनिक कंप्यूटर भी जवाब नहीं दे पाता। तीसरा बच्चा गणित के 50 मुश्किल सवाल मात्र अढाई मिनट में हल कर देता है। यह विश्व रिकॉर्ड है। यह सब बच्चे संस्कृत में वार्ता करते है, शास्त्रों का अध्यन करते है, देशी गाय का दूध-घी खाते है। बाजारू सामान से बचकर रहते है।

यथासंभव प्राकृतिक जीवन जीते है और घुड़सवारी, ज्योतिष, शास्त्रीय संगीत, चित्रकला आदि विषयों का इन्हें अध्यन कराया जाता है। इस गुरुकुल में मात्र 100 बच्चे है पर उनको पढ़ाने के लिये 300 शिक्षक है। ये सब वैदिक पद्धति से पढ़ाते है। बच्चो की अभिरूचि अनुसार उनका पाठयक्रम तैयार किया जाता है। परीक्षा की कई निर्धारित पद्दति नहीं है। इस गुरुकुल के संस्थापक उत्तम भाई ने फैसला किया कि उन्हें योग्य संस्कारवान मेधावी वह देशभक्त युवा तैयार करने हैं जो जिस भी क्षेत्र में जाएं अपनी योगिता का लोहा मनवा दे और आज यह हो रहा है। लोग इन बच्चों की बहुआयामी प्रतिभाओं को देखकर दांतो तले उंगली दबा लेते हैं। खुद डिग्री वहीन उत्तम भाई का कहना है – ” उन्होंने सारा ज्ञान स्वाध्याय और अनुभव से अर्जित किया है।

उनका कहना है – ” भारत की मौजूदा शिक्षा प्रणाली जो कि मेकाले की देन है, जो भारत को गुलाम बनाने के लिए लागू की गई थी इसलिए भारत गुलाम बना और आज तक बना हुआ है। ये गुलामी की जंजीरें तब टूटेगी जब भारत का हर युवा प्राचीन गुरूकुल परंपरा से पढ़कर अपनी संस्कृति और अपनी परंपराओं पर गर्व करेगा तब भारत फिर से विश्व गुरु बनेगा आज की तरह कंगाल नहीं। उत्तम भाई चुनौती देते हुए कहते हैं – ” भारत के सबसे साधारण बच्चों को छांट लिया जाए और 10-10 की टोली बनाकर दुनिया के 10 सर्वश्रेष्ठ विद्यालय में भेज दिया जाए 10 छात्र उन्हें भी दे दिए जाएं। साल के आखिर में मुकाबला हो। अगर गुरुकुल के बच्चे दुनिया के सर्वश्रेष्ठ विद्यालयों के विद्यार्थियों के मुकाबले कहीं गुना ज्यादा मेधावी ना हो तो उनकी गर्दन काट दी जाए| भारत सरकार को चाहिए कि वह गुलाम बनाने वाले देश के इस शब्द स्कूलों को बंद कर दे और वैदिक पद्धति से चलने वाले गुरुकुलो की स्थापना करें।



http://hindi.revoltpress.com/news/story/from-harvard-university-usa-to-iit-india-is-nothing-in-front-of-this-education-system/

Saturday, July 23, 2016

होम | ब्लॉग | 'कबाली' के लिए ऐसा क्रेज ठीक है, पर इस क्रेज की जरूरत कहीं और है...

कबाली, कबाली, कबाली... चारों ओर यही शोर है। पहली बार सुबह 3 बजे एक फिल्‍म रिलीज हुई है। वजह है कि सब जानते हैं इस फिल्‍म को देखने के लिए बहुत लोग लाइन में हैं... लोग पंजों के बल खड़े होकर टिकट खिड़की पर लगी लाइन को अपनी आंखों के इंचिटेप से बार-बार माप रहे हैं... शायद जमीन पर इतनी भी जगह न थी कि लोग पैर पूरे टिका पाते।

उस एक थिएटर के बाहर खूब भीड़ थी। थिएटर से सटी दीवार के पास एक मैला कंबल पड़ा था। कंबल को आज जम कर लातें पड़ी हैं, पर कंबल की निगाहें भीड़ को हैरानी से देख रही हैं... वे सुन और देख रही हैं कि जिस हरे नोट के लिए वह दिन भर हाथ फैलाए घूमती हैं, कई हाथ उन्‍हें थिएटर के टिकट कांउटर पर देने को उतावले हैं...

वह आंखें सोच रही हैं- 'क्‍या वाकई किसी के पास इतना पैसा हो सकता है? क्‍या कोई सिर्फ एक फिल्‍म देखने पर इतना पैसा उड़ा देता है? ऐसे लोग आखिर कैसा खाना खाते होंगे? कपड़े तो बहुत अच्‍छे पहने हैं! काश किसी के हाथ से एक नोट गिर जाए!'  पर उन आंखों का ये सपना क्‍या कभी पूरा हुआ है जो आज होगा!

भावनाओं से इतर कभी-कभी एक बात जेहन में 'रिलीज' होती है। हां रिलीज ही होती है, तभी सैंकडों करोड़ की बात बनेगी वो। आजकल आने वाली फिल्‍में सौ करोड़ के आंकड़े को तो ऐसे पार करती हैं, जैसे मैंने इस लेख को लिखते हुए और आपने पढ़ते हुए कई बार पलकें झपकाई हैं। जब सौ करोड़ का क्‍लब शुरू हुआ है, तो ऐसा लगता था मानों इस क्‍लब में शामिल होने के लिए फिल्‍मों को खासी जद्दोहजद करनी पड़ती होगी। लेकिन ये क्‍या... अब तो फिल्‍मों ने 200 करोड़, 300 और 500 करोड़ के करोबार भी कर लिए...

दर्शक अपने चहेते कलाकारों की फिल्‍में एक नहीं तीन-चार बार देखते हैं। कबाली की कहानी को समीक्षकों ने सराहा नहीं, लेकिन फिर भी लोग इस फिल्‍म को देखने के लिए उतावले हैं। सिनेमाहॉल के अंदर फिल्‍म को देख और समझ पाना जरा मुश्किल सा है, क्‍योकि प्रशंसकों का उत्‍साह और खुशी इतनी है कि शोर और तालियों के बीच आप फिल्‍म के संवाद सुन भी नहीं पाएंगे...

आप और मुझ जैसी जनता, जो चमक-दमक वाली, किसी संदेश के साथ या संदेश रहित किसी भी फिल्‍म को बस किसी बड़े अभिनेता का फैन होने के नाते ही देख आते हैं। अक्‍सर मेट्रो में, दफ्तर में लोगों के मुंह से सुना है- 'देख आते हैं यार ये फिल्‍म कैसी है। अच्‍छी या खराब।', ' चाहे फ्लॉप क्‍यों न हो ये फिल्‍म। पर आज ही देखनी है मुझे। फलां एक्टर की फिल्‍म मैं कैसे छोड़ सकती हूं।'

इन बातों से मैं यही अंदाजा लगा पाती हूं कि आज हमारे देश में लोगों के पास इतना पैसा तो है कि वह फिल्‍म और मनोरंजन क्षेत्र में आसानी से खर्च कर सकते हैं। उन्‍हें इसके लिए उतना सोचने की जरूरत नहीं, जितना हमारे मां-बाबा सोचते थे। कुछ लोग तो ऐसे भी हैं, जो फर्स्‍ट डे, फर्स्‍ट शो देखने के लिए कुछ भी कर गुजरते हैं... यकीन मानिए कुछ भी...

मैं इस लेख को ज्‍यादा बड़ा नहीं लिखूंगी। वजह यह है कि इस लेख से मैं आपको कुछ बताना नहीं, आपसे पूछना चाहती हूं। जरा बताएं कि हमारे देश में कितने लोग आज भी जीवन की मूल जरूरतों से वंचित हैं। घर, खाना, शिक्षा और स्‍वास्‍थ्‍य सुविधाओं से महरूम हैं। क्‍यों न हमारी सरकार, कोई एनजीओ, कोई व्‍यवसायी या कोई भी संस्‍था बिना ज्‍यादा खर्च किए हर 2,3 या 6 महीने में एक ऐसी फिल्‍म या डॉक्‍यूमेंट्री बनाए, जो उन लोगों के जीवन पर, इनकी परेशानियों पर आधारित हो। ऐसी फिल्‍मों को भी बड़े पैमाने पर रिलीज किया जाएं। और उन्‍हें हम सब देख आएं। यही सोचकर की जब हम मनोरंजन पर आधारित आधारहीन फिल्‍मों पर पैसा लगा सकते हैं, तो साल में 3 या 4 बार हमारे समाज और देश के विकास के उद्देश्‍य से बन रही किसी फिल्‍म को भी देख सकते हैं। क्‍या मेरा ऐसा सोचना कुछ गलत है... या मैं अपने देश की पढ़ी-लिखी जनता से कुछ ज्‍यादा ही उम्‍मीदें लगा रही हूं...?

इस तरह की फिल्‍मों के दो फायदे होंगे। एक तो देखने वालों को देश के एक तबके के हालातों के बारे में पता चलेगा। वह जमीनी हकीकत से जुड़ेगा और दूसरा और अहम, इससे आने वाले पैसे को गरीब और सुविधाहीन जनता के उद्धार में लगाया जा सकेगा। उन भूखी और बेबस आंखों के लिए हम शायद कुछ कर पाएं...

अनिता शर्मा एनडीटीवी खबर में चीफ सब एडिटर हैं।
http://khabar.ndtv.com/news/blogs/anita-sharmas-blog-on-kabali-1435116?pfrom=home-moretop

'मैं पल दो पल का शायर हूं...'

Friday, July 22, 2016

Remembering MUKESH on his93rd Birth Anniversary

मुकेश जन्मदिन विशेष: 'जीना यहां मरना यहां...', शादी समारोह में गाए गाने से मिली आवाज़ के इस 'जादूगर' को पहचान

  • 22 जुलाई को जन्मे मुकेश चन्द्र माथुर को सिर्फ मुकेश का नाम मिला। इस मुकेश ने अपनी सुरमई आवाज़ का ऐसा जादू बिखेरा कि हिंदी सिनेमा में ये नाम राज करने लग गया। ये आवाज़ जिस भी गीत को अपनी आवाज़ देती उसका सुपरहिट होना जैसे तय मान लिया जाता था।


  • लाखों लोगों के दिलों को न सिर्फ छू लेने बल्कि उनमे राज करने की महारथ रखने वाले पार्श्व गायक मुकेश भले ही हमारे बीच आज नहीं हों, लेकिन उनके गाए एक से एक बेहतरीन गीत आज भी हर किसी की ज़बां पर जैसे बसे हुए हैं।  शायद ही किसी को मालूम था कि एक शादी समारोह में गाना गाकर इस आवाज़ को वो पहचान मिलेगी जो उसे धीरे-धीरे दुनिया भर में अपना दीवाना बना देगी। 
    22 जुलाई को जन्मे मुकेश चन्द्र माथुर को सिर्फ मुकेश का नाम मिला।  इस मुकेश ने अपनी सुरमई आवाज़ का ऐसा जादू बिखेरा कि हिंदी सिनेमा में ये नाम राज करने लग गया।  ये आवाज़ जिस भी गीत को अपनी आवाज़ देती उसका सुपरहिट होना जैसे तय मान लिया जाता था।   

    दरअसल, मुकेश की आवाज़ की खूबी को उनके एक दूर के रिश्तेदार मोतिलाल ने तब पहचाना जब उन्होने उसे अपने बहन की शादी में गाते हुए सुना। मोतिलाल उन्हे बम्बई ले गए और अपने घर में रहने दिया। यही नहीं, उन्होने मुकेश के लिए रियाज़ का पूरा इन्तजाम भी किया। इस दौरान मुकेश को एक हिन्दी फ़िल्म निर्दोश (1941) में मुख्य कलाकार का काम मिला। पार्श्व गायक के तौर पर उन्हें अपना पहला काम 1945 में फ़िल्म पहली नज़र में मिला। मुकेश ने हिन्दी फ़िल्म में जो पहला गाना गाया वह था दिल जलता है तो जलने दे जिसमें अदाकारी मोतिलाल ने की। इस गीत में मुकेश के आदर्श गायक केएल सहगल के प्रभाव का असर साफ साफ नजर आया। 
    मुकेश 1974 में मुकेश को रजनीगन्धा फ़िल्म में कई बार यूं भी देखा है गाना गाने के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। 1976 में जब वे अमरीका के डिट्रोय्ट शहर में दौरे पर थे तब उन्हे दिल का दौरा पडा और उनका निधन हो गया।  
    फ़िल्में जिनमें मुकेश ने दी आवाज़ 
    पहली नज़र (1945), मेला (1948), आग (1948), अन्दाज़ (1949),आवारा (1951), श्री 420 (1955), परवरिश (1958), अनाडी (1959), सन्गम (1964), मेरा नाम जोकर (1970), धरम करम (1975), "कभी कभी" (1976) 

    मुकेश के यादगार गीत
    - तु कहे अगर
    - ज़िन्दा हूँ मै इस तरह से
    - मेरा जूता है जापानी (फ़िल्म आवारा से)
    - ये मेरा दीवानापन है (फ़िल्म यहुदी से)
    - किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार (फ़िल्म अन्दाज़ से)
    - ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना (फ़िल्म बन्दीनी से)
    - दोस्त दोस्त ना रहा (फ़िल्म सन्गम से)
    - जाने कहाँ गये वो दिन (फ़िल्म मेरा नाम जोकर से)
    - मैने तेरे लिये ही सात रंग के सपने चुने (फ़िल्म आनन्द से)
    - इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल (फ़िल्म धरम करम से)
    - मैं पल दो पल का शायर हूँ
    - कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है (फ़िल्म कभी कभी से)
    - चन्चल शीतल निर्मल कोमल (फिल्म सत्यम शिवम सुन्दरम् से)
    - दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई  http://rajasthanpatrika.patrika.com/story/entertainment/happy-birth-day-mukesh-hindi-film-industry-remembers-singer-mukesh-2287314.html

तस्‍वीरें: सदाबहार आवाज के जादूगर थे गायक मुकेश

बॉलीवुड के दिग्गज गायक मुकेश को गूगल-डूडल ने दी श्रद्धांजलि

IANS[Edited by: पूजा बजाज]

नई दिल्ली, 22 जुलाई 2016 | अपडेटेड: 14:07 IST
सर्च इंजन गूगल ने शुक्रवार को डूडल के जरिए बॉलीवुड के दिग्गज प्लेबैक सिंगर दिवंगत मुकेश को उनकी 93वीं जयंती पर श्रद्धांजलि दी.





'राज कपूर की आवाज' के नाम से लेकप्रिय मुकेश चंद माथुर का जन्म 22 जुलाई, 1923 को दिल्ली में हुआ था और लगभग चार दशक के अपने लंबे करियर में वह संगीत की समृद्ध विरासत छोड़ गए.
गूगल ने अपने डूडल पर दिवंगत निर्देशक यश चोपड़ा की सबसे लोकप्रिय रोमांटिक फिल्म 'कभी-कभी' के एक दृश्य को कार्टून के रूप में दर्शाकर मुकेश को मुस्कराते चेहरे के साथ दिखाया है. इसमें मुकेश के हाथों में एक माइक्रोफोन भी नजर आ रहा है.

मुकेश के एक दूर के रिश्तेदार और बॉलीवुड के जाने-माने करेक्टर एक्टर रहे मोतीलाल ने गायक के हुनर को पहचाना था. मुकेश ने उनकी बहन की शादी पर एक गीत गाया था, जिसके बाद वह गायक को लेकर मुंबई आ गए. इसके बाद मोतीलाल ने मुकेश को पंडित जगन्नाथ प्रसाद से संगीत में प्रशिक्षण दिलाया.
मुकेश को 1945 में आई फिल्म 'पहली नजर' में मोतीलाल की आवाज बनने का मौका मिला और उनका पहला हिन्दी गाना था 'दिल जलता है, तो जलने दे'. मुकेश दिग्गज गायक के.एल. सहगल के काफी बड़े प्रशंसक थे और करियर के शुरुआती दिनों में उनके द्वारा गाए गीतों में सहगल के अंदाज की झलक नजर आती थी.
प्रतिष्ठित संगीतकार नौशाद अली ने तब मुकेश को सहगल की छाया से बाहर निकलने में और उन्हें अपनी एक अलग पहचान बनाने में मदद दी. कुछ समय बाद दिग्गज प्लेबैक सिंगर अपनी अनूठी और सुरीली आवाज के दम पर बॉलीवुड के प्रतिष्ठित दिग्गज गायकों मोहम्मद रफी और किशोर कुमार की सूची में शुमार हो गए. प्लेबैक सिंगर्स की इस तिकड़ी ने फिल्म 'अमर अकबर एंथनी' में लता मंगेशकर के साथ 'हमको तुमसे हो गया है प्यार क्या करें' गाना गाया.
अपने लंबे संगीत करियर में मुकेश ने कई लोकप्रिय और यादगार गीत गाए, जिनमें 'चंदन सा बदन (सरस्वतीचंद्र)', 'चल री सजनी, अब क्या रोके (बम्बई का बाबू)', 'कभी-कभी मेरे दिल में ख्याल आता है और मैं पल दो पल का शायर हूं (कभी-कभी)', 'क्या खूब लगती हो, बड़ी सुंदर दिखती हो (धर्मात्मा)', 'सब कुछ सीखा हमने, न सीखी होशियारी (अनाड़ी)', 'सावन का महीना, पवन करे शोर (मिलन)' और 'होटों पे सच्चाई रहती है (जिस देश में गंगा बहती है) जैसे कई गाने हैं.
मुकेश को 'रजनीगंधा' फिल्म में गाए गाने 'कई बार यूं ही देखा है' के लिए 1974 में नेशनल फिल्म अवॉर्ड समारोह में सर्वश्रेष्ठ प्लेबैक सिंगर के खिताब से भी नवाजा गया था.
अमेरिका में एक स्टेज शो के दौरान दिल का दौरा पड़ने से 27 अगस्त, 1976 को मुकेश का निधन हो गया. वह 53 साल के थे.

मुकेश...जिनकी आवाज़ 'पल दो पल' की नहीं, हर पल की साथी है...

जब भी पुराने हिंदी गानों की बात होती है तो कुछ बेमिसाल आवाज़ों में एक नाम मुकेश का होता है। जहां एक तरफ किशोर कुमार और मोहम्मद रफी को उनकी वेरिएशन के लिए जाना जाता था, वहीं मुकेश का अंदाज़ काफी जुदा था। उनके गाए गानों में एक ऐसा ठहराव है जो आपको दर्द में भी राहत देता है, उन्हें सुनते हुए लगता है कि आप किसी पहाड़ पर पहुंच गए हैं जहां आत्मा को सुकून देनी वाली बेपनाह शांति है। 22 जुलाई यानि आज दिग्गज पार्श्वगायक मुकेश की 93वीं जयंती है। गूगल ने इस मौके पर मुकेश की याद में एक डूडल भी तैयार किया है  -

http://khabar.ndtv.com/news/filmy/google-pays-homage-to-legendary-playback-singer-mukesh-1434658

दर्द भरी सुरीली आवाज के सरताज मुकेश के जन्‍मदिन पर विशेष : परिवार से बगावत कर रचाई थी शादी

नई दिल्ली: 'दोस्त-दोस्त ना रहा', 'जीना यहां मरना यहां', 'कहता है जोकर', 'दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई', 'आवारा हूं', 'मेरा जूता है जापानी' जैसे खूबसूरत नगमों के सरताज मुकेश माथुर की आवाज की दीवानी पूरी दुनिया है। आज उनका 93वां जन्‍मदिन है। उनको श्रद्धांजलि देते हुए इस अवसर पर गूगल ने डूडल बनाया है। उन्होंने अपनी दर्दभरी सुरीली आवाज से सबके दिल में अपना खास मुकाम बनाया।



 मुकेश ने 40 साल के लंबे करियर में लगभग 200 से अधिक फिल्मों के लिए गीत गाए। मुकेश हर सुपरस्टार की आवाज बने। उनके गाए गीतों को लोग आज भी गुनगुनाते हैं। उनके गीत हमारी रोजमर्रा की जिंदगी से कहीं न कहीं जुड़ते हैं और यही नहीं, उनके गाए नगमें आज के नए गीतों को टक्कर देते हैं, रीमिक्स भी बनता है।

शुरुआती जीवन  
मुकेश का जन्म 22 जुलाई, 1923 को दिल्ली में हुआ था। मुकेश के पिता जोरावर चंद्र माथुर इंजीनियर थे। मुकेश उनके 10 बच्चों में छठे नंबर पर थे। उन्होंने दसवीं तक पढ़ाई कर पीडब्लूडी में नौकरी शुरू की थी। कुछ ही साल बाद किस्मत उन्हें मायानगरी मुंबई ले गई।

मुकेश अपने सहपाठियों के बीच कुंदन लाल सहगल के गीत सुनाया करते थे और उन्हें अपने स्वरों से सराबोर किया करते थे, लेकिन वह मधुर स्वर के रूप में एक अनूठा तोहफा लेकर पैदा हुए थे। उनका स्वर महज सहपाठियों के बीच गाने भर के लिए नहीं, बल्कि लाखों-करोड़ों लोगों के होंठों और दिल में बस जाने के लिए था।

प्रेम विवाह
 मुकेश को एक गुजराती लड़की सरल भा गई थी। वह उसी से शादी करना चाहते थे, लेकिन दोनों परिवार में इसका विरोध हुआ। उन्होंने दोनों परिवारों के तमाम बंधनों की परवाह न करते हुए ठीक अपने जन्मदिन के दिन 22 जुलाई 1946 को सरल के साथ शादी के अटूट बंधन में बंध गए। मुकेश के एक बेटा और दो बेटियां हैं। बेटे का नाम नितिन और बेटियां रीटा व नलिनी हैं।

 नील नितिन मुकेश से नाता
बड़ा होने पर नितिन अपने नाम में पिता का नाम जोड़कर नितिन मुकेश हो गए। उन्होंने पिता की तरह कई फिल्मों के लिए गाया भी। उनके बेटे यानी मुकेश के पोते नील के नाम में पिता और दादा, नों के नाम जुड़े हैं। नील नितिन मुकेश लेकिन गाना नहीं गाते, वह आज बॉलीवुड के चर्चित अभिनेता हैं।

मुकेश की आवाज की खूबी को उनके एक दूर के रिश्तेदार मोतीलाल ने तब पहचाना, जब उन्होंने उन्हें अपनी बहन की शादी में गाते हुए सुना। मोतीलाल उन्हें मुंबई ले गए और अपने घर में साथ रखा।

करियर
मुकेश ने अपना सफर 1941 में शुरू हुआ। फिल्म 'निर्दोष' में मुकेश ने अदाकारी करने के साथ-साथ गाने भी खुद गाए। इसके अलावा, उन्होंने 'माशूका', 'आह', 'अनुराग' और 'दुल्हन' में भी बतौर अभिनेता काम किया। उन्होंने अपने करियर में सबसे पहला गाना 'दिल ही बुझा हुआ हो तो' गाया था। इसमें कोई शक नहीं कि मुकेश सुरीली आवाज के मालिक थे और यही वजह है कि उनके चाहने वाले सिर्फ हिंदुस्तान ही नहीं, बल्कि दुनिया भर के संगीत प्रेमी थे।

फिल्म-उद्योग में उनका शुरुआती दौर मुश्किलों भरा था। लेकिन एक दिन उनकी आवाज का जादू के.एल. सहगल पर चल गया। मुकेश का गाना सुनकर सहगल भी अचंभे में पड़ गए थे। 40 के दशक में मुकेश के पार्श्‍व गायन का अपना अनोखा तरीका था।

जब बने राजकपूर की आवाज
उस दौर में मुकेश की आवाज में सबसे ज्यादा गीत दिलीप कुमार पर फिल्माए गए। वहीं 50 के दशक में मुकेश को शोमैन 'राज कपूर की आवाज' कहा जाने लगा। राज कपूर और मुकेश में काफी अच्छी दोस्ती थी। उनकी दोस्ती स्टूडियो तक ही नहीं थी। मुश्किल दौर में राज कपूर और मुकेश हमेशा एक-दूसरे की मदद को तैयार रहते थे। उन्होंने 1951 की फिल्म 'मल्हार' और 1956 की 'अनुराग' में निर्माता के तौर पर काम किया।

 मुकेश को बचपन से ही अभिनय का शौक था, जिसके चलते वह फिल्म 'माशूका' और 'अनुराग' में बतौर हीरो भी नजर आए। लेकिन दोनों फिल्में फ्लॉप हो गईं और उन्हें आर्थिक तंगी से जूझना पड़ा।

फिल्‍म फेयर पुरस्‍कार पाने वाले पहले पुरुष गायक
साल 1959 में ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म 'अनाड़ी' ने राज कपूर को पहला फिल्मफेयर अवॉर्ड दिलाया। लेकिन कम ही लोगों को पता है कि राज कपूर के जिगरी यार मुकेश को भी अनाड़ी फिल्म के 'सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी' गाने के लिए बेस्ट प्लेबैक सिंगर का फिल्मफेयर अवार्ड मिला था।

मुकेश फिल्मफेयर पुरस्कार पाने वाले पहले पुरुष गायक थे। उन्हें फिल्म 'अनाड़ी' से 'सब कुछ सीखा हमने', 1970 में फिल्म 'पहचान' से 'सबसे बड़ा नादान वही है', 1972 में 'बेइमान' से 'जय बोलो बेईमान की जय बोलो' के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार से नवाजा गया। फिल्म 1974 में 'रजनीगंधा' से 'कई बार यूं भी देखा है' के लिए नेशनल पुरस्कार, 1976 में 'कभी कभी' से 'कभी-कभी मेरे दिल में ख्याल आता है' के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार से सम्मानित किया है।

मुकेश ने हर तरीके के गाने गाए, लेकिन उन्हें दर्द भरे गीतों से अधिक पहचान मिली, क्योंकि दिल से गाए हुए गीत लोगों के जेहन में ऐसे उतरे कि लोग उन्हें आज भी याद करते हैं।'दर्द का बादशाह' कहे जाने वाले मुकेश ने 'अगर जिंदा हूं मैं इस तरह से', 'ये मेरा दीवानापन है', 'ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना', 'दोस्त दोस्त ना रहा' जैसे कई गीतों को अपनी आवाज दी।

मुकेश का निधन 27 अगस्त, 1976 को अमेरिका में एक स्टेज शो के दौरान दिल का दौरा पड़ने से हुआ। उस समय वह गा रहे थे- 'एक दिन बिक जाएगा माटी के मोल, जग में रह जाएंगे प्यारे तेरे बोल'। सचमुच, दुनिया से ओझल हो चुके मुकेश के गाए बोल जग में आज भी गूंज रहे हैं और हमेशा गूंजते रहेंगे।
http://khabar.ndtv.com/news/filmy/singer-mukesh-birthday-special-1434571